वर्धन राजवंश
¨ पुष्यभूति/वर्धन वंश
- संस्थापक – पुष्यभूति – बाणभट्ट के हर्षचरितम् के अनुसार।
- हर्ष के अभिलेखों में पुष्यभूति का उल्लेख नहीं मिलता है।
¨ जानकारी के स्त्रोत :-
¨ साहित्यिक स्त्रोत :-
1. बाणभट्ट :-
हर्ष का दरबारी कवि एवं विद्वान था।
(i) ग्रंथ – हर्षचरितम् (कुल 8 अंक)
- 1-3 अंक – बाणभट्ट की जानकारी
- 4-8 अंक – हर्ष के युद्ध, प्रारंभिक जीवन व राजनैतिक जीवन
(ii) कादम्बरी :-
- बाणभट्ट की रचना
- संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है।
- हर्ष के सामाजिक व धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है।
2. ह्वेनसांग/युवानच्वांग/श्वानच्वांग :-
- जन्म – 600 ई. होनान प्रांत (चीन में) में चीन चेऊ नामक स्थान पर हुआ।
- पिता का नाम चेन-हुई था।
- 629 ई. में चीन से भारत रवाना हुआ। कपिसा (अफगान) होते हुए हर्ष की राजधानी कन्नौज (उत्तर प्रदेश) पहुंचा।
- 629 ई. – 645 ई. तक भारत में रहा।
- ह्वेनसांग भारत बौद्ध धर्म का विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करने हेतु आया। उसने सर्वप्रथम थानेश्वर (हरियाणा) के बौद्ध विद्वान 'जयगुप्त' से शिक्षा प्राप्त की थी।
- नालंदा विहार में भी शिक्षा प्राप्त की, उस समय आचार्य शीलभद्र कुलपति थे।
- वापस चीन जाते समय 645 ई. में 6000 बौद्ध ग्रंथ अपने साथ ले गया।
- ह्वेनसांग ने पाटलिपुत्र का विवरण देते हुए लिखा है कि उसके समय पाटलिपुत्र एक सामान्य गाँव बन चुका था।
- भारत के लोग अपने लिए घोड़े - ईराक, इरान, फारस व कंबोज से आयात करते थे।
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य :–
- ह्वेनसांग ने कन्नौज धर्म सभा की अध्यक्षता की।
- 643 ई. हर्ष की 6वीं महामोक्ष परिषद (प्रयाग) में भाग लिया। 645 ई. में चीन चला गया।
- सिंचाई के लिए घंटीयुत्र (रहट) के प्रयोग की बात कही थी।
- ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा का वर्णन पुस्तक 'सि-यू-की' (पश्चिमी संसार की यात्रा वर्णन) में किया।
- ह्वेनसांग को ‘तीर्थयात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है।
- ह्वेनसांग कामरूप (असम) के शासक भास्करवर्मा के दरबार में भी गया था।
- ह्वेनसांग को ‘शाक्यमुनी’ भी कहते हैं।
- ह्वेनसांग ने हर्ष को शीलादित्य कहा। शुद्रों को कृषक कहा।
अन्य साहित्यिक ग्रंथ :–
3. बौद्ध ग्रंथ :-
- आर्यश्रीमूलमंजूकल्प (प्राकृत भाषा) से भी जानकारी प्राप्त होती है । इसमें हर्ष को इसने वैश्य बताया है।
4. अभिलेख :-
- बांसखेड़ा ताम्रपत्र, मधुबन ताम्रपत्र - यूपी
- ऐहोल अभिलेख व हर्ष की मुद्रा (शिव अंकित) इससे भी वर्धन वंश की जानकारी मिलती है।
- हर्ष के तीन नाटक – नागानंद, रत्नावली, प्रियदर्शिका में वर्धन वंश का उल्लेख मिलता है, इसलिए इसे साहित्यकार सम्राट कहते हैं।
पुरातात्त्विक स्त्रोत :
- हर्ष के ताम्रपत्र अभिलेख
- बंसखेड़ा/मधुबनी
- यह दोनों अभिलेख (U.P.) से प्राप्त हुए हैं।
- इन दोनों अभिलेखों में वर्धन वंश के प्रारंभिक शासकों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
- प्रथम शासक – नरवर्धन
- पुष्यभूति का उल्लेख नहीं मिलता है।
- हर्ष की सोनीपत हरियाणा से एक मोहर प्राप्त हुई है।
- इस पर एक तरफ हर्ष का अंकन है तथा दूसरी तरफ शिव का अंकन है।
- इससे हर्ष के प्रारंभिक धर्म शैव धर्म की जानकारी मिलती है।
- ह्वेनसांग के प्रभाव में आकर हर्ष बौद्ध अनुयायी बना।
ऐहोल अभिलेख : (630 ई. - 634 ई. के मध्य का)
- कर्नाटक के बीजापुर से प्राप्त हुआ है।
- जैन कवि रविकीर्ति के द्वारा रचित है।
- हर्ष व पुलकेशिन II के मध्य – नर्मदा के तट पर हुए युद्ध के बारे में जानकारी प्राप्त होती है तथा इस युद्ध में हर्ष प्रथम बार पराजित होता है।
नोट : युद्ध की तिथि नहीं मिलती परन्तु सम्भवत: यह युद्ध 630 - 634 ई. में मध्य हुआ होगा।
वर्धन वंश के शासक :
(1) पुष्यभूति - वर्धन वंश का संस्थापक था।
- इसकी जानकारी केवल - हर्षचरितम् से मिलती है।
- पुष्यभूति (वर्धन वंश) की स्थापना की।
- स्थानेश्वर/थानेश्वर को राजधानी (हरियाणा) बनाया।
(2) नरवर्धन
- पत्नी : व्रजिणी देवी
- हर्ष के अभिलेखों में उल्लिखित प्रथम शासक
(3) राज्यवर्धन
पत्नी : अप्सरा देवी
(4) आदित्यवर्धन :
- पत्नी : महासेना गुप्त:
- साम्राज्य विस्तार हेतु आदित्यवर्धन ने - मालवा/मगध के परवर्ती गुप्तों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए।
- पुत्र : प्रभाकरवर्धन
प्रभाकरवर्धन :-
- वर्धन वंश का सबसे प्रतापी शासक – प्रथम प्रभावी शासक
- पत्नी – यशोमती
- तीन संतान –
1. राज्यवर्धन II,
2. हर्षवर्धन
3. राज्यश्री – विवाह – मोखरीवंश के अंतिम शासक गृहवर्मा से।
¨ प्रभाकरवर्धन की उपाधियाँ :- प्रथम शासक, जिसने महाराजाधिराज व परमभट्टारक की उपाधि धारण की।
- हूणहरिनकेसरी – हूण रूपी हरिन (हिरण) के लिए सिंह के समान।
- सिंधुराजज्वार – सिंधु राज्य के लिए ज्वार के समान।
- गुर्जरप्रजागर – गुर्जरों की नींद हराम करने वाला।
- लाटपाटखपाटचारो – चंचलता को समाप्त करने वाला।
- मालवलक्ष्मीलता परशु – मालवा की लक्ष्मीरूपी लता के लिए कुल्हाड़ी समान
- इन उपाधियों का उल्लेख – आर्यश्रीमूलमंजूकल्प और हर्षचरित में।
- प्रभाकरवर्धन ने सबसे पहले पंजाब व सिंधु प्रदेश पर विजय प्राप्त की।
- इसके समय में हूणों का आक्रमण हुआ, दमन के लिए इसने राज्यवर्धन II (पुत्र) को भेजा।
- राज्यवर्धन ने हूणों का दमन कर दिया।
- आक्रमण के समय प्रभाकरवर्धन बीमार पड़ गया, यशोमती ने परेशान होकर आत्मदाह कर लिया।
- राज्यवर्धन II ने पिता के इलाज हेतु दो वैध बुलाए – रसायन और सुषैन।
- लेकिन इलाज के दौरान ही प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो जाती है।
¨ राज्यवर्धन-II :-
- प्रभाकर की मृत्यु के बाद शासक बना।
- हूणहरिणकेसरी – उपाधि
- माता-पिता की मृत्यु से दु:खी होकर राजपाठ छोड़ने की बात कहता है हर्ष से – हर्ष कहता है बड़े भाई आप तो ऐसी बात कर रहे हैं, जैसे एक सती स्त्री को उसका सतीत्व त्यागने को कहा जाता है।
- इसी दौरान बंगाल में गौड़ वंश के शशांक का शासन था उसने मालवा के शासक देववर्मन (देवगुप्त) से संधि कर कन्नौज पर आक्रमण कर दिया।
- देवगुप्त ने कन्नौज के शासक राज्यवर्धन के जीजा गृहवर्मा की हत्या कर दी, और देववर्मन और गृहवर्मा की पत्नी राज्यश्री को जेल में डाल देता है।
- अपने बहनोई की हत्या का बदला लेने के लिए 10000 की सेना लेकर राज्यवर्धन अपने ममेरे भाई भण्डी के साथ कन्नौज पहुंचा।
- राज्य की सुरक्षा का भार हर्ष को सौंपा।
- राज्यवर्धन ने देवगुप्त को पराजित कर मार डाला। किन्तु देवगुप्त के मित्र शशांक ने धोखे से राज्यवर्धन की हत्या कर दी।
- मालवा शासक देवगुप्त की हत्या का बदला लेने हेतु शशांक ने अपने एक दूत के माध्यम से 'राज्यवर्धन' को अपनी पुत्री के साथ विवाह करने का न्यौता भेजा।
- राज्यवर्धन विवाह करने हेतु बंगाल पहुँचा लेकिन रात्रि विश्राम के समय शशांक ने राज्यवर्धन की हत्या कर दी।
- इसकी खबर 16 वर्ष के अबोध हर्ष को लगी।
- हर्षवर्धन ने शपथ ली – “मैं देवश्री की चरणों में शपथ लेता हूँ कि सम्पूर्ण सृष्टि को गौड़विहीन न कर दूँ तब तक चुप नहीं बैठूंगा यदि नहीं कर पाया तो पतंगे की भाँति अग्नि में कूद देह त्याग दूँगा।”
- 606 ई. में हर्ष का राज्याभिषेक (हर्षचरितम् के अनुसार) ह्वेनसांग – जब 629 ई. में भारत आया तो उसने अपने ग्रंथ में कहा कि जब वो भारत पहुंचा तब हर्ष के शासनकाल को लगभग 30 वर्ष हो चुके थे। प्रारंभिक 6 वर्षों के शासन की जानकारी नहीं मिलती।
- भाई व पति की हत्या की सूचना से दु:खी होकर राज्यश्री विंध्य के जंगल में किसी अज्ञात स्थान पर चली गई।
हर्षवर्धन :
¨ हर्षवर्धन :- 606-647 ई.
- भाई की हत्या का समाचार ‘कुंतल’ नामक दूत से मिलता है।
- बहन के विंध्याचल जाने का समाचार – भण्डी से मिलता है।
- सेनापति ‘सिंहनाद’ के कहने पर सिंहासन ग्रहण किया।
राजधानी थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित की।
- कामरूप (असम) के राजा भास्कर वर्मा से संधि कर शशांक के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की।
शशांक बंगाल छोड़कर भाग निकला।
¨ हर्ष का दिग्विजयी अभियान :-
- अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में नर्मदा तक कर लिया जहाँ चालुक्य शासक पुलकेशिन II नर्मदा नदी के तट पर (630-34) के बीच हर्ष को पराजित करता है। यह हर्ष की एकमात्र हार थी।
उल्लेख – ऐहोल अभिलेख – रविकीर्ति द्वारा लिखित
- पुलकेशिन II ने विजय के बाद ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की।
- हर्ष के साम्राज्य का विस्तार –
पूर्व में गंजाम (उड़ीसा)। गंजाम का युद्ध हर्ष के जीवन का अंतिम युद्ध था। इसे कांगोद का युद्ध भी कहा जाता है, जो कि 643 ई. में लड़ा गया।
पश्चिम में वल्लभी (गुजरात)। वल्लभी के शासक ध्रुवसेन II को पराजित कर अपनी पुत्री का विवाह किया।
उत्तर में कश्मीर को छोड़कर समस्त प्रदेश।
- कश्मीर के शासक के साथ हर्ष की गौतम बुद्ध के दंत व अस्थि अवशेष को लेकर युद्ध हुआ।
- हर्ष की सेना प्रतिदिन 8 कोस (24 किमी.) की दूरी तय करती थी।
¨ पंचभारत विजय :-
- उल्लेख – ह्वेनसांग द्वारा अपने ग्रंथ 'सि-यु-की' में किया।
- पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार, उड़ीसा (PKBBU)
- अत: ह्वेनसांग ने हर्ष को ‘पंचभारत स्वामी’ कहा है। ह्वेनसांग ने हर्ष को शिलादित्य भी कहा।
- अपना अंतिम युद्ध – 643 ई. में गंजाम/कांगोद (उड़ीसा)
- हर्ष को बाणभट्ट ने ‘सर्वचक्रवर्तिनाम्’ धौरेय चतु: समुद्राधिपति (चारों समुद्रों का स्वामी) तथा अभिलेखों में ‘सकलोत्तरापथनाथ’ (सम्पूर्ण उत्तर भारत का स्वामी) कहा।
- हर्ष को ‘साहित्यकार सम्राट’ भी कहा जाता है।
- यूरोपीय लेखकों ने हर्ष को हिन्दूकाल का अकबर कहा।
- ह्वेनसांग ने हर्ष को ‘शिलादित्य’ बताया है।
- गुजराती लेखक सोद्दल (दण्डी) – ने अपनी ‘अवन्ति सुंदरी’ नामक कथा में हर्ष को – कवीन्द्र कहा।
- गीत गोविन्द के लेखक जयदेव ने इसे – काव्य का हर्ष कहा।
- नालंदा से प्राप्त एक मुद्रा पर ‘श्री हर्ष’ लिखा मिला है, तथा उसे महेश्वर, सार्वभौम तथा महाराजाधिराज भी कहा गया।
- हर्षवर्धन प्राचीन भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट था।
¨ हर्ष का धर्म :-
- सोनीपत (हरियाणा) से प्राप्त एक मुद्रा पर ‘शिव, पार्वती व नंदी’ का अंकन मिलता है। मोहर के दूसरी तरफ हर्ष का अंकन है तथा कई मोहरों पर 'श्री हर्ष' लिखा हुआ है।
- प्रारंभिक धर्म – शैव धर्म – चार शाखाएँ –
1. लिंगायत (शैव),
2. कापालिक,
3. कालामुख,
4. पाशुपत
- हर्ष चरितम् के अनुसार हर्ष विजय अभियान प्रारंभ करने से पूर्व शिव पूजा करता था।
- हर्षवर्धन ने परम परमेश्वर की उपाधि धारण की।
- 619 ई. तक हर्ष शैव अनुयायी था। सर्वप्रथम हर्ष 'दीवाकरमित्र' बौद्ध मित्र के प्रभाव में आया।
- बाद में ह्वेनसांग के प्रभाव में आकर पूर्णत: बौद्ध बना।
- हर्ष ने अनेक बौद्ध स्तूपों का निर्माण करवाया।
चित्र : हर्षकालीन मुहर
¨ कन्नौज धर्म सभा :-
- हर्ष के शासन काल की सबसे प्रमुख घटना
- डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने इस सभा को - ‘धर्मों का महासम्मेलन’ कहा।
¨ उद्देश्य :-
- महायान बौद्धधर्म की प्रतिष्ठा स्थापित करना।
- इस सभा में 18 देशों के राजा, 300 ब्राह्मण व 1000 नालंदा विहार भिक्षुओं ने भाग लिया और जैन निग्रंथों ने भी।
- अध्यक्ष – ह्वेनसांग
- गौतम बुद्ध की 3 फुट ऊँची स्वर्ण प्रतिमा हाथी पर विराजित कर भव्य जुलूस निकाला गया।
- सभा के प्रथम दिन
हाथी के दायीं ओर हर्ष – इंद्र के वेश में
हाथी के बायीं ओर भास्कर वर्मा – ब्रह्मा के वेश में
इनके ह्वेनसांग और कन्नौज राज्य के मंत्रीगण हाथी पर, बौद्ध भिक्षुक, जैन निग्रन्थ
- ह्वेनसांग – “यदि कोई व्यक्ति मेरे तर्क या तथ्यों को गलत साबित कर दे, तो मैं सिर धड़ से अलग कर उसे अर्पण कर दूँगा।”
- हर्ष “यदि किसी ने ह्वेनसांग के तर्क के ऊपर उंगली उठाई तो उसकी उंगली काट ली जाएगी, कुछ बोला तो जीह्वा काट दी जाएगी ह्वेनसांग को छुआ तो मृत्यु दण्ड मिलेगा।”
- लेकिन विरोध हुआ धर्म सभा भवन को आग लगा दी गई।
- धर्म सभा अभियान 18 दिन चला – ह्वेनसांग को विजेता घोषित कर ‘महायान देव’ व ‘मोक्षदेव’ की उपाधि दी गई।
- सभा में ब्राह्मणों को बोलने का पूर्ण अवसर ही नहीं दिया गया।
¨ प्रयाग सम्मेलन :- महामोक्ष परिषद
- हर्ष प्रत्येक पाँचवे वर्ष प्रयाग महोत्सव करके ब्राह्मण, भिक्षु, दीन व अनाथों को दान देता था।
- आयोजन – 643 ई. – कन्नौज धर्म सभा के बाद 6वीं महामोक्ष प्रयाग सम्मेलन में ह्वेनसांग को निमंत्रण भेजा।
- संभवत: ह्वेनसांग 5वीं महामोक्ष सम्मेलन में हर्ष से मिला था।
- 6वें सम्मेलन में लगभग 5 लाख लोगों ने भाग लिया।
- प्रथम तीन दिन – शिव, बुद्ध, सूर्य की उपासना की गई।
- अंतिम 40 दिन में महादान किया गया।
- ह्वेनसांग कहता है- अंतिम दिन हर्ष के पास कपड़े भी नहीं बचे सब दान कर दिया।
- हर्ष की महान दानवीरता के कारण – प्राचीन भारत का कर्ण कहा जाता है।
- R.C. त्रिपाठी के अनुसार, "प्राचीन भारत में ऐसा दानवीर पहले कभी नहीं हुआ।" सम्मेलन कुल 75 दिनों तक चला।
¨ हर्षकालीन प्रमुख विद्वान एवं साहित्यकार :-
- हर्ष कला व साहित्य का उदार संरक्षक था, अपने राजस्व का ¼ भाग विद्वानों को दान देता था।
1. बाणभट्ट :-
- दरबारी कवि एवं प्रमुख विद्वान।
- ग्रंथ – संस्कृत भाषा में लिखे।
i. हर्षचरित – 620 ई. (8 भागों में)
ii. कादम्बरी
- अन्य – चण्डीशतक, पार्वती परिणय, मुकुट तड़ितम्/तड़ितकम
2. मयूर/मोर :-
- बाणभट्ट का ससुर था।
- हर्ष का दूसरा प्रमुख कवि।
- ग्रंथ – सूर्यशतक, मयूर शतक, खण्ड प्रशस्ति।
3. दण्डी :-
- संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान – वास्तविक नाम – सोढ्ढ़न/सोढ्ढ़ल
- ग्रंथ – दशकुमारचरित, काव्यादर्श, अवन्तिसुन्दरी
¨ अन्य विद्वान :-
- जयसेन – बौद्ध भिक्षुक
- सुबंधु मातंगदिवाकर – चाण्डाल जाति का विद्वान था।
- ईशान- शीलभद्र
नोट :-
- हर्ष के समय ही भर्तृहरि ने –शृंगार शतक, वैराग्य शतक, नीतिशतक जैसे प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की।
¨ हर्षकालीन कला संस्कृति :–
- उल्लेख – हर्षचरित और कादम्बरी में
- हर्ष का टीला कन्नौज (UP) में स्थित है।
- सिरपुर (रायपुर) का लक्ष्मण मंदिर व मुण्डकेश्वरी (बिहार) का अष्टकोणिक मंदिर हर्ष के समय में निर्मित हुए।
- नालंदा विश्वविद्यालय में एक मठ का निर्माण करवाया। जयसेन को 80 गाँव दान में दिये।
- हर्ष के समय नालंदा के प्रमुख शीलभद्र थे।
¨ सामाजिक स्थिति :-
- ह्वेनसांग – चार प्रमुख वर्ण
1. ब्राह्मण
2. क्षत्रिय
3. वैश्य
4. शूद्र
- 5वें वर्ण में मिश्रित जातियों जिनमें अनुलोम व प्रतिलोम विवाह होता था।
- बाल विवाह पूर्ण रूप से स्थापित हो गए। (8-10 वर्ष में कन्या का विवाह) प्राचीन भारत में बाल विवाह का प्रथम उल्लेख।
8 वर्ष की लड़की – गौरी
स्त्रियों की स्थिति:-
- 10 वर्ष की लड़की - कन्या
- जाति प्रथा समाज का प्रमुख आधार
- वर्ण व्यवस्था – जन्म पर आधारित
- स्त्रियों में पर्दाप्रथा का प्रचलन नहीं
- लोग श्वेत वस्त्र धारण करते थे।
- समाज में अपराध न के बराबर लेकिन सती प्रथा प्रचलित।
¨ शिक्षा की स्थिति :–
- हर्षकालीन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र – नालंदा, काशी, वल्लभी, उज्जयनी
¨ धर्म :–
- हर्षकालीन भारत के दौरान शैव, जैन, बौद्ध, ब्राह्मण धर्म प्रचलित थे।
- शैव मत का सर्वाधिक प्रचलन।
- बौद्ध धर्म 18 भागों में विभाजित
“गृहे गृहे अपुज्यते भगवान खण्ड परशु (शिव)” अर्थात थानेश्वर के सभी घरों में शिव की पूजा होती थी।
- हर्ष 619 ई. तक शैव अनुयायी थे।
- सोनीपत (हरियाणा) से प्राप्त मुद्रा पर शिव, पार्वती (अग्रभाग), नंदी बने, पृष्ठ भाग पर श्री हर्ष अंकित।
- ह्वेनसांग के प्रभाव में – बौद्ध अनुयायी बना।
¨ हर्ष का प्रशासन :- हर्षकालीन प्रशासन का उल्लेख हर्ष चरितम् में मिलता है।
अधिकारी | कार्य |
अवन्ति | युद्ध व शांति अधिकारी |
सिंघनाद/सिंहनाद | सेनापति |
कुंतल | अश्व सेना का प्रधान |
स्कंदगुप्त | हस्तिसेना का प्रधान |
चाट-भाट | वैतनिक, अवैतनिक सैनिक (पुलिस अधिकारी) |
सामंत/महाराज | नागरिक प्रशासन का प्रमुख |
प्रतिहार | अन्त:पुर का रक्षक (रनिवास) |
महाप्रतिहार | राजप्रासाद का रक्षक |
आयुक्तक | साधारण अधिकारी |
मीमांसक | न्यायाधीश |
- हर्ष को ‘प्राचीन भारत का अंतिम हिंदू सम्राट’ माना जाता है। ‘प्राचीन भारत का अंतिम महान साम्राज्य निर्माता’
- हर्ष की मृत्यु – 647 ई. में – साथ ही वर्धन वंश का पतन को गया।