वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization)

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 उदय :-

  • सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के बाद जिस सभ्यता का उदय हुआ उसे वैदिक अथवा आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है।
  •  वैदिक सभ्यता की जानकारी के स्त्रोत वेद हैं। जिनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन है व सर्वाधिक बड़ा स्त्रोत है।
  • यह भारत की प्रथम ग्रामीण सभ्यता मानी गई है।(लौह युगीन)
  • वेद शब्द 'विद्' धातु से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है जानना या ज्ञान।
  • वेदो में इस सभ्यता के संस्थापकों को आर्य कहा गया है।



आर्य :-
  • आर्य संस्कृत भाषा का शब्द है जो “अरि+य” से मिलकर बना है।
  • आर्य का शब्दिक अर्थ है- सुसंस्कृत /उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति।
Note- आर्य नॉर्डिक शाखा की सफेद उपजाति से संबंधित मानव समुह है।
आर्य किस प्रदेश के मूल निवासी थे, यह इतिहासकारों के बीच एक विवादास्पद प्रश्न है।




• वैदिक काल(1500 ई.पू.-600 ई.पू.) को दो भागों में विभाजित किया गया है-
- ऋग्वैदिक युग (1500 से 1000 ई.पू.)
- उत्तरवैदिक काल  (1000 से 600 ई.पू.)
वैदिक साहित्य :-
वैदिक काल में सम्पुर्ण जानकारी वैदिक साहित्य से प्राप्त होती है।
वेद :-
  • वेद शब्द “विद्” धातु “धञ” प्रत्यय से बना है। जिसका शब्दिक अर्थ – ज्ञानराशि / ज्ञान का भंडार है।
  • वेदों के रचनाकार : अपोरूषेय (अर्थात वेदों की रचना किसी पुरूष विशेष के द्वारा नहीं की गई)
  • वेदों को दैविय ज्ञान का अंश माना गया है।
  • इसका संकलन - महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास।
वेद चार प्रकार के होते है।
1.ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद
- यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद ये उत्तरवैदिक काल की रचना है।
ऋग्वेद :
  • ऋग्वेद की ऋचाएँ  सामान्यतया अग्नि देवता को संबोधित हैं इन ऋचाओं को दस पुस्तकों अथवा 'मंडलों' में विभाजित किया जाता है। 
  • ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से संबंधित रचनाओं का संग्रह है।
  • यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमें 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम (वंश मंडल) माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल सबसे अन्त में जोड़े गये हैं।
  •  इसमें कुल 1028 सूक्त हैं, तथा 10562 मंत्र है।
  • इसकी भाषा पद्यात्मक है।
  • 'गायत्री मंत्र' सविता (सवितृ) देवता को समर्पित है। इसका उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मंडल में है। इसके रचनाकार विश्वामित्र है।
  • ऋग्वेद में राजा को 'गोप्ता जनस्य' तथा 'पुराभेत्ता' अर्थात् नगरों पर विजय पाने वाला कहा गया है।
  • सोमरस को पेय पदार्थों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद के 9वें मण्डल में है।
  • ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ है-
    1. शाकल
    2. वाकल
    3. अश्वलायन
    4. शाखायन
    5. माण्डुक्य
वर्तमान में केवल शाकल शाखा ही शेष है बाकी लुप्तप्राय है।
यजुर्वेद :
  • यजु का अर्थ होता है यज्ञ।
  • यजुर्वेद में यज्ञ विधियों का वर्णन किया गया है।
  • यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक तथा गद्यात्मक दोनों है। इसमें संस्कृत गद्य की कुछ प्राचीनतम रचनाएँ हैं।
  • यजुर्वेद की दो शाखाएँ है
1. कृष्ण यजुर्वेद –
     -  यह वेद पद्य और गद्य दोनों में है।
दक्षिण भारत में सर्वाधिक मान्यता है।
2. शुक्ल यजुर्वेद –
      - यह वेद केवल मंत्र पद्य में है।
      - उत्तर भारत में प्रचलित है।
      -   यह सबसे प्रामणिक शाखा है।      
सामवेद :
  • सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिये गये मंत्रों को गाने योग्य बनाने के उद्देश्य से की गयी थी।
  • सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।
  • सामवेद में ऋग्वेद से लिए गए मंत्र हैं जिन्हें धुन की आवश्यकता के अनुसार क्रम दिया गया है।
  • सुर्य की स्तुती इसी वेद में है।
अथर्ववेद :
  • अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी।
  • इसमें रोग तथा उसके निवारण के साधन के रूप में जादू, टोनों आदि की जानकारी दी गयी है।
  • इसे अनार्यों की कृति मानी जाती है।
  • आरण्यक ग्रंथों की रचना जंगलों में ऋषियों द्वारा की गयी थी।
  • इस वेद में कुल 5849 मंत्र एवं 20 कांड है।
  • उपनिषद प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है।
  • 'सत्यमेव जयते' वाक्यांश मुण्डकोपनिषद से लिया गया है।
  • इसे अक्सर लोक विश्वासों और व्यवहारों की अंतरंग जानकारी देने वाला ग्रंथ माना जाता है।
वेद
ऋग्वेद
यजुर्वेद
सामवेद
अथर्ववेद
     
वेदों के चार उपवेद है।
वेद
ऋग्वेद
यजुर्वेद
सामवेद
अथर्ववेद
श्रुति :- वेदों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सुनकर (बोलकर) हस्तांतरित वेदों को श्रुति कहा जाता है।
स्मृति :-  वेदों को याद करके एक से दुसरो को सुनना स्मृतियों वेदों के अनुपुरक ग्रंथ है।
- इन्हें वैदिक साहित्य में शामिल नहीं किया गया है।
सबसे प्राचीनतम स्मृति - मनु स्मृति है।
आरण्यक :- वानप्रस्थ आश्रम के दौरान लिखे गए ग्रंथ आरण्यक ग्रंथ कहलायें।
ब्राह्मण ग्रंथ :- वेदों की विशेष व्याख्या  करने वाले ग्रंथ।  
उपनिषद :- तीन शब्दों से मिलकर बना है।
 उप      +         नि         +        सद्
 समीप         ध्यानपुर्वक            बैठना
- इनका शब्दिक अर्थ गुरू के समीप ध्यान पुर्वक बैठना।
- उपनिषदों के साथ ही वेदों का अन्त हो गया अत: इसे वेदान्त भी कहा जाता है।
कुल उपनिषद - 108
प्रमुख उपनिषद - 12
- इन वेदों की रचना और इनका संकलन एक लंबी अवधि में लगभग 1800 ई.पू. के बाद से एक हजार वर्ष तक हुआ था। ऋग्वेद को एक प्रारंभिक वैदिक ग्रंथ माना जाता है, जिसने लगभग 1000 ई.पू. तक अंतिम आकार ग्रहण कर लिया था, जबकि अन्य तीन वेदों को बाद के काल का माना जाता है। वेदों के बाद अन्य ग्रंथों में “ब्राह्‌मण ग्रन्थ” जिनमें मिथक और दंतकथाएँ हैं तथा कर्मकांड की व्याख्या और परिभाषा स्वरूप वेदों पर की गई व्यापक टिप्पणियाँ अथवा टीकाएँ हैं। प्रमुख तौर पर दार्शनिक ग्रंथ “आरण्यक” और “उपनिषदों” को भी बाद के वैदिक काल का माना जाता है। इनमें से प्राचीनतम ग्रंथ की रचना लगभग 1000-500 ई.पू. के बीच हुई थी। उपनिषदों की संख्या 108 है।
वेदांग और सूत्र साहित्य:-
  • वेदांगों की संख्या छह है - शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
  • सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग न होने के बावजूद उसे समझने में सहायक है।
  • तीसरी श्रेणी साहित्य की है, जिसे “वेदांग” अर्थात् वेदों का अंग कहा जाता है। इनमें उच्चारण, ध्वनि विज्ञान, व्याकरण, शब्द व्युत्पत्ति विज्ञान, ज्योतिष से संबंधित ग्रंथों के अतिरिक्त विशद “कल्पसूत्र” भी हैं जिसके चार उप-विभाजन हैं :
  • श्रोत सूत्र- इनमें अश्वमेध और राजसूय जैसे यज्ञों का विवरण है,
  • गृह्य सूत्र- इनमें अंतिम संस्कार सहित घरेलू कर्मकांडों के नियम दिए गए हैं,
  • धर्म सूत्र- इनमें सामाजिक नियम दिए गए हैं,
  • सुल्व सूत्र- रेखागणित के सिद्धांत दिये गये हैं।
 ऋग्वैदिक काल :
  • इस काल की सम्पूर्ण जानकारी हमें ऋग्वेद से मिलती है।
  • ऋग्वेद में आर्य निवास के लिए सर्वत्र सप्त सैंधव शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ है सात नदियों का क्षेत्र ये नदियाँ है – सिंधु, सरस्वती, परुष्णी (रावी), वितस्ता (झेलम), शतुद्रि (सतलज), अस्किनी (चिनाब) और विपासा (व्यास)।  
  • आर्यों का भौगोलिक विस्तार पंजाब, अफगानिस्तान, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश या यमुना नदी के पश्चिम भाग तक था।
  • दाशराज्ञ युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे हुआ था।
  • सिंधु सभ्यता के विपरीत वैदिक सभ्यता मूलत: ग्रामीण थी। आर्यों का आरंभिक जीवन पशु चारण पर आधारित था।
राजनीतिक अवस्था :
  • ऋग्वैदिक काल में सामान्यतः राजतंत्र का प्रचलन था, परन्तु राजा का पद दैवीय नहीं माना जाता था।
  • ऋग्वैदिक समाज कबीलाई व्यवस्था पर आधारित था। कबीले का एक राजा होता था, जिसे 'गोप' कहा जाता था।
  • कबीलाई सभा द्वारा राजा को चुने जाने की सूचना मिलती है। सभा, समिति व विदथ का ऋग्वेद में उल्लेख है।
  • सभा श्रेष्ठ जनों की संस्था थी जबकि समिति आम जन - प्रतिनिधि सभा थी, जिसमें जन के समस्त लोग सम्मिलित होते थे।
  • इस काल में कोई नियमित कर व्यवस्था नहीं थी।
  • राज्य का मूल आधार कुल या परिवार था। परिवार का मुखिया ‘कुलप’ कहलाता था। एक ग्राम में अनेक कुलों का निवास होता था। गाँव का मुखिया ‘ग्रामिक’ होता था।
  • सभा और समिति जन प्रतिनिधित्व की संस्था थी, जिसमें श्रेष्ठ वर्ग के लोग थे, जिनका कार्य राजा को सलाह देना था।   
सामाजिक स्थिति :
  • ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार थी। कई परिवार मिलकर ग्राम तथा कई ग्राम मिलकर 'विश' एवं कई विश मिलकर जन का निर्माण करते थे।
  • पितृसत्तात्मक परिवार वैदिककालीन सामाजिक जीवन का केन्द्र बिन्दु था।
  • प्रारम्भ में इस काल का समाज वर्गविभेद से रहित था।
  • ऋग्वेद में वर्ण शब्द कहीं - कहीं रंग तथा कहीं - कहीं व्यवसाय के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
  • ऋग्वेद के दशम मंडल के 'पुरुष सूक्त' के अनुसार ब्राह्मण की उत्पत्ति मुख से, क्षत्रिय की भुजा से, वैश्य की जांघ से तथा शूद्र की पैरों से हुई है।
  • स्त्रियाँ सभा और समिति में भाग लेती थीं।
  • विधवा विवाह, नियोग प्रथा, अंतर्जातीय विवाह, बहुपत्नीत्व, बहुपतित्व प्रथा का प्रचलन था।
  • बाल विवाह, सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
  • आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्या को 'अमाजू' कहते थे। 
  • ऋग्वेद काल में दास प्रथा विद्यमान थी।
  • आर्य शाकाहारी व मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे।
  • आर्यों में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था।
वर्ण व्यवस्था :-
  • वर्ण व्यवस्था का उल्लेख ऋग्वेद के 10 वें मण्डल पुरूष सुक्त में मिलता है।
  • ऋग्वेदिक वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी।
वर्ण
ब्राह्मण
क्षत्रिय
वैश्य
शुद्र
आश्रम व्यवस्था :-
  • सम्पुर्ण मानव जीवन को 100 वर्ष का मानते हुए इसे 4 बराबर भागों में विभाजित किया है।
  • सर्वप्रथम 'छान्दोग्य उपनिषद’ में प्रारंभिक 3 आश्रमों का उल्लेख मिलता है परन्तु चारों आश्रमों का उल्लेख ‘जाबालोपनिषद’ ने मिलता है।
  • आश्रम व्यवस्था पुर्ण रूप से उत्तरवैदिक काल में विकसित हुई।
ब्रह्मचर्य आश्रम
गृहस्थ आश्रम
वानप्रस्थ आश्रम
सन्यास आश्रम
 
 
 
 
 
 
आर्थिक स्थिति :
  • ऋग्वेद काल में आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। ऋग्वेद सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी।
  • इस काल में गाय को पवित्र पशु माना गया है। साथ ही इसका उपयोग विनिमय के साधन के रूप में भी होता था। गाय को अघन्या (न मारे जाने योग्य पशु) माना जाता था। गाय को मारने पर कठोर दंड का प्रावधान था।
  • कृषि कार्यों की जानकारी लोगों को थी। ऋग्वेद के चौथे मण्डल में कृषि का उल्लेख है। आर्य एक ही अनाज यव (जौ) की खेती करते थे।
  • हल चलाने वाले व्यक्ति को कीवाश कहा जाता था।
  • ऋग्वेदिक काल में सिंचाई दो प्रकार से की जाती थी-
    1. स्वंयजा - वर्षा के पानी / तालाब के माधयम से सिंचाई
    2. खत्रिनमा - कृत्रिम साधनों से जैसे कुए से सिंचाई
  • संभवत: तांबे या कांसे के लिये ‘अयस’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
  • इस काल के लोग लोहे से अपरिचित थे।
धार्मिक स्थिति :
ऋग्वेदिक आर्य एकेश्वरवादी थे तथा प्रकृति की पुजा करते थे।
  • आर्यों के अनुसार धौंस व पृथ्वी के मिलन से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है।
  • सर्वप्रथम पृथ्वी व धौंस (आकाशिय देवता) की पुजा प्रारंभ की तीसरे पूजक (देवता) के रूप में वरूण की पूजा करते है।
  • वरूण –  इसे सम्पूर्ण जलनिधि का स्वामी व असुर देवता बताया गया है।
  • इन्द्र – ऋग्वेदिक काल के सबसे लोकप्रिय देवता माना जाता है।
  • अग्नि – इन्हें धौंसपुत्र व आहुतियों का देवता माना जाता है।
  • इस काल में लोगों ने प्राकृतिक शक्ति का मानवीकरण कर पूजा की।
  • ऋग्वैदिक आर्यों  की देवमंडली तीन भागों में विभाजित थी।
  • ऋग्वेद काल में इन्द्र सबसे प्रमुख देवता था। ऋग्वेद के 250 सुक्त इन्द्र को समर्पित हैं। यह युद्ध, बादल एवं वर्षा का देवता था। इसे पुरदंर कहा गया है।
  • बोगजकोई अभिलेख में वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य का उल्लेख है।
  • सोम वनस्पति का देवता था।
उत्तर वैदिक काल :
  • जिस काल में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, आरण्यक तथा उपनिषद की रचना हुई उसे उत्तरवैदिक काल (1000-600 ई.पू.) कहते हैं।
  • इस काल से लौह प्रौद्योगिकी युग की शुरुआत  हुई।
 नदियों के प्राचीन एवं नवीन नाम:-
प्राचीन नाम
वितस्ता
अस्किनी
विपासा (विपाशा)
परुष्णी
शतुद्रि
कुभा
क्रुमु (क्रुभु)
गोमती
दृषद्वती
शतपथ ब्राह्मण में रेवा (नर्मदा) और गण्डक नदियों का उल्लेख मिलता है साथ ही इसका केन्द्र पंजाब से बढ़कर गंगा यमुना दो आब तक हो गया था।
राजनीतिक स्थिति :
  • कई कबीलों ने मिलकर राष्ट्रों या जनपदों का निर्माण किया। इस काल में कबीले मिलकर क्षेत्रीय राज्यों के रूप में उभरने लगे थे। राष्ट्र शब्द जो प्रदेश का सूचक है, पहली बार इस काल में प्रकट हुआ था।
  • उत्तर वैदिक काल में शासन तंत्र का आधार राजतंत्र था। इस काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया था।
  • राजा को देवताओं के प्रतिनिधि के रूप में पुजा जाता था।
  • प्रशासनिक तंत्र को सुव्यवस्थित करने हेतु राजा ने एक तंत्र स्थापित किया जिसमें राजा के रथकार से लेकर पटरानी तक के लोग शामिल थे, इन्हें रत्निन कहा गया।
  • क्षेत्रीय राज्यों के उदय होने से अब 'राजन्' शब्द का प्रयोग किसी क्षेत्र विशेष के प्रधान के लिए किया जाने लगा।
  • राजा का मुख्य कार्य सैनिक और न्याय संबंधी होते थे।
  • छोटे राजाओं को ‘राजक’ कहते थे।
रत्निन का नाम
राजा (सम्राट)
पुरोहित
महिपी
युवराज
सूत
सेनानी
संगृहहिता
अक्षवाप
पालागल
गोविकर्तन
भागदुध
क्षत्रि
सामाजिक स्थिति :
  • संयुक्त एवं पितृसत्तात्मक परिवार की प्रथा इस काल में भी बनी रही।
  • समाज वर्णव्यवस्था पर आधारित था तथा वर्ण अब जाति का रूप लेने लगा था। वर्णों का आधार कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित होने लगा था तथा व्यवसाय भी आनुवांशिक होने लगे थे।
  • ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों को ‘द्विज’ कहा जाता था। ‘ऐतेरेय ब्राह्मण’ में चारों वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। इस काल में केवल वैश्य ही कर चुकाते थे, क्रम में सबसे निचला वर्ण शूद्र था, जिसका कार्य अन्य तीनों  वर्णों की सेवा करना था।
  • उत्तरवैदिक काल में नारियों की स्थिति में ऋग्वेदकाल की अपेक्षा गिरावट आयी। स्त्रियाँ सभा और समिति जैसी राजनीतिक संस्थाओं में भाग नहीं ले सकती थी परन्तु उनके अधिकार सीमित हो गए थे। शतपथ ब्राह्मण में कुछ विदुषी महिलाओं का उल्लेख मिलता है जैसे – मैत्रेयी, गार्गी, लोपामुद्रा, वेदवती, कशकृत्सनी आदि। स्त्रियों से इस काल में संपत्ति का अधिकार छिन गया था। वृहदारण्यक उपनिषद में जनक की सभा में गार्गी और याज्ञवल्क्य के बीच वाद-विवाद का उल्लेख करता है।
  • चार आश्रमों की व्यवस्था की जानकारी जाबालोपनिषद् से मिलती है। यह आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास थे।
'मनुस्मृति में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है- 
1. ब्रह्म विवाह :   कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता द्वारा योग्य वर खोजकर, उससे अपनी कन्या का विवाह करना।
2. आर्ष विवाह :   कन्या के पिता द्वारा यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गायों के बदले में अपनी कन्या का विवाह करना।
3. दैव विवाह :   यज्ञ करने वाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह।
4. गंधर्व विवाह :  कन्या तथा पुरुष प्रेम अथवा कामुकता के वशीभूत होकर विवाह करते थे।   
5. आसुर विवाह :  कन्या के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या का विक्रय।
6. प्रजापत्य विवाह :  वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या मांगकर विवाह करता था।
7. राक्षस विवाह :    बलपूर्वक कन्या को छीनकर उससे विवाह करना।
8. पैशाच विवाह :    सोई हुई अथवा विक्षिप्त कन्या के साथ सहवास कर विवाह करना।
स्मृतिकारों ने संस्कारों की संख्या 16 बताई है।
सोलह संस्कार
1. गर्भाधान
3. सीमान्तोन्नयन
5. नामकरण
7. अन्नप्राशन
9. कर्ण बोध
11. उपनयन
13.केशांत अथवा गोदान
15. विवाह
आर्थिक स्थिति :
  • कृषि तथा विभिन्न शिल्पों के विकास के कारण जीवन स्थाई हो गया, हालांकि पशुपालन अभी भी व्यापक पैमाने पर जारी था, परन्तु अब खेती उनका मुख्य धंधा बन गया।
  • अथर्ववेद के अनुसार पृथुवैन्य ने सर्वप्रथम हल और कृषि को जन्म दिया।
  • लोहे का उपयोग पहले शस्त्र निर्माण तथा बाद में कृषि यंत्रों के निर्माण में किया गया।
  • शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं - जुताई, बुवाई, कटाई एवं मड़ाई का उल्लेख हुआ है।
  • गाय, बैल, घोड़ा, हाथी, भैंस, बकरी, गधा, ऊँट, सूअर आदि मुख्य पशु थे।
  • कपास का उल्लेख नहीं हुआ है। इसकी जगह उर्णा (ऊन) शब्द का उल्लेख कई बार आया है।
  • आर्य लोग तांबे के अतिरिक्त सोना, चांदी, सीसा, टिन, पीतल, रांगा आदि धातुओं से परिचित हो चुके थे।
  • व्यावसायिक संगठन के लिए ऐतरेय ब्राह्मण में 'श्रेष्ठी' तथा वाजसनेयी संहिता में 'गण' एवं 'गणपति' शब्द का उल्लेख हुआ है।
  • मुख्यतः वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी।
धार्मिक स्थिति :
  • उत्तर वैदिक काल में यज्ञ अनुष्ठान एवं कर्मकांडीय गतिविधियों में वृद्धि हुई।
  • लोगों को पंच महायज्ञ करने के भी धार्मिक आदेश थे-
  1. ब्रह्म यज्ञ - अध्ययन एवं अध्यापन।
  2. देव यज्ञ - होम कर देवताओं की स्तुति।
  3. पितृ यज्ञ - पितरों को तर्पण करना।
  4. मनुष्य यज्ञ - अतिथि सत्कार तथा मनुष्य के कल्याण की कामना
  5. भूत यज्ञ - जीवधारियों का पालन।
  • तीन ऋण थे - देव ऋण (देवताओं तथा भौतिक शक्तियों के प्रति दायित्व), ऋषि ऋण और पितृ ऋण (पूर्वजों के प्रति दायित्व)।
  • चार पुरूषार्थ – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ।
  • उत्तर वैदिक काल में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव प्रमुख देवता हो गए।
  • इन्द्र, अग्नि, वरुण तथा अन्य ऋग्वैदिक देवताओं का महत्व कम हो गया।
  • उत्तरवैदिक काल के अंतिम दौर में यज्ञ, पशु बलि तथा कर्मकांड के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
  • वृहदारण्यक उपनिषद में पहली बार पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी।
           उत्तर वैदिक काल में कई दर्शनों का उद्भव हुआ-
प्रमुख दर्शन एवं उनके प्रवर्तक

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